कुपोषण के कारण बेमौत मारे जा रहे बच्चों के मसले पर मध्यप्रदेश सरकार आँकड़ों और तर्क- वितर्क से पर्दा डालने की कोशिश कर रही है। तर्कों का तानाबाना बुनते हुए सरकार यह बता रही है कि कांग्रेस को अपने राज के दौरान 5.49 फीसदी गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की याद नहीं है और वह मौजूदा 0.56 फीसदी बच्चों के कुपोषण पर शोर मचा रही है। एक तरफ सरकार यह कबूल कर रही है कि खंडवा और सतना में 93 बच्चों की मौत हुई है पर वह इनको कुपोषण का मामला मानने से इंकार कर रही है। उसका दावा है कि ये मौतें बुखार (वायरल फीवर) तथा उल्टी-दस्त से शरीर में होने वाली पानी की कमी से हुई हैं यानी दूसरी सरकारों की तरह बिलकुल वैसा ही रवैया है, जो भूख से मौतों के मामले में होता है।
यदि मान भी लें कि सारी मौतें बुखार और दस्त से ही हुई हैं तो इससे वह इंकार नहीं कर सकती कि जो बच्चे मरे, उनके परिजनों की माली हालत खस्ता थी। उन्हें कुपोषण ने नहीं तो इलाज के अभाव ने तो मौत के मुँह में धकेला ही है। क्या इस पर सरकार और संबधित जिला प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
क्या इसे सरकार में सामूहिक नेतृत्व की कमी का मामला नहीं समझा जाए? क्या सरकार यह नहीं जानती कि जब वायरल फीवर किसी शरीर को घेरता है तो उसके इलाज के लिए कोई एंटी वायरल दवा अब तक नहीं बनी है। डॉक्टर सिर्फ एंटीबायोटिक देते हैं ताकि बुखार से घटी प्रतिरोधक क्षमता के बीच कोई जीवाणु का संक्रमण नहीं हो जाए।
विषाणु का इलाज तो खुद पीड़ित का शरीर करता है। इसके खिलाफ शरीर ही एंटीबॉडी तैयार करता है, जो उस विषाणु के असर को खत्म करता है। और यह बात क्या तर्कों का तानाबाना बुनने वाले सरकार के कारिंदों को नहीं पता कि कमजोर और कुपोषण से घिरा शरीर यह एंटीबॉडी तैयार नहीं कर पाता, जो उसकी मौत का सबब बनता है। क्या वे ये भी नहीं जानते कि पौष्टिक आहार का क्या मतलब है। इसका अर्थ प्रोटीनयुक्त आहार है। प्रोटीन ही एंटीबॉडीज तैयार करने में मददगार होता है।
यह दाल-दलिया में होता है, खीर-पूड़ी में नहीं। सरकार को किस समझदार (?) ने उनको दलिया की जगह खीर-पूड़ी का मशविरा दिया। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेहदेले की बात सही है कि दो रुपए में समोसा नहीं मिलता पर दो रुपए में दलिया और गुड़ का इंतजाम आज भी हो सकता है। सवाल यही है कि देश की आजादी के छः दशक बाद भी हम कब तक मेरी कमीज से तेरी कमीज गंदी होने का दंभ भरते रहेंगे? तकनीकी रूप से कुपोषण से मौत भले ही नहीं होती, पर इस बात को भी कोई नहीं नकार सकता कि कुपोषित शरीर पर बीमारी जानलेवा साबित होती है। आखिर हम यह कब समझेंगे कि बच्चा-बच्चा होता है फिर चाहे वह गरीब का हो या अमीर का। जो सक्षम है वे तो अपनी चिंता कर लेंगे, लेकिन गरीब के बच्चे का इलाज तो सरकार को ही करना होगा जो जनता की जेब से ही इस सबके लिए पैसे वसूलती है।
Sunday, October 5, 2008
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