Monday, October 13, 2008

एक जैसे दो नायक

अक्टूबर में देश-दुनिया के दलित तथा दूसरे लोग अपने दो महान नेताओं-बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर तथा कांशीराम का स्मरण करते हैं। डा. अंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। दूसरी ओर कांशीराम ने बाबासाहेब के अधूरे कारवां को बहुत आगे ले जाने तथा इसे एक हद तक व्यावहारिक आकार देने के बाद 9 अक्टूबर 2006 को महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। 1956 में बाबासाहेब के बौद्ध धर्म में आने के बाद से नागपुर में प्रत्येक वर्ष 14 अक्टूबर को दलित चेतना को एक नया आयाम मिलता रहा है। इस दिन दलित समुदाय के लोग हिंदू सामाजिक ढांचे के अन्यायों से मुक्ति का जश्न मनाते हैं और उन 22 शपथों को याद करते हैं जो इस दिन डा. अंबेडकर ने उन्हें दी थीं। उस स्थान का नाम 'दीक्षा भूमि' रख दिया गया है। देश के अलग-अलग स्थानों से लाखों दलित इस दिन यहां एकत्र होकर अपने प्रिय नेता का स्मरण करते हैं। आज नागपुर की दीक्षा भूमि वास्तव में दलितों और बौद्धों के लिए एकसमान रूप से तीर्थस्थल बन गई है। इस तीर्थस्थल का एक विलक्षण पहलू यह है कि यहां लोग मिठाई या फूल जैसी चीजें नहीं चढ़ाते। इसके बजाय वे बस अपने आदर्श के समक्ष सम्मान प्रकट करते हैं और जब घर लौटते हैं तो मेले से स्मृति चिह्नं के रूप में अंबेडकर साहित्य, कैसेट, कैलेंडर और लोगो ले जाते हैं। यहां अलग-अलग राजनीतिक-सामाजिक समूहों के लोग एकत्र होते हैं और उस संदेश के प्रति लोगों की चेतना जागृत करते हैं जो बाबासाहेब ने दिया था। जो लोग यहां नहीं पहुंच पाते वे अपने-अपने स्थानों में समारोहों का आयोजन करते हैं।बाबासाहेब ने तत्कालीन बंबई में 31 मई 1936 को एक सम्मेलन में बौद्ध धर्म ग्रहण करने का प्रस्ताव पारित कराया था, लेकिन उन्होंने 20 वर्ष का इंतजार करने के बाद इस पर अमल किया। उन्होंने कहा था कि धर्म एक पैतृक संपत्तिबनकर रह गया है। यह किसी मौलिकता के बिना एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित हो जाता है। दलितों का मतांतरण यदि होता है तो यह धर्म के मूल्यों पर पूरे विचार-विमर्श के बाद होगा। अंबेडकर ने इस विचार का भी खंडन किया कि मतांतरण कोई राजनीतिक कदम है। वह जानते थे कि दलित यदि मतांतरित होते हैं तो उन्हें अपने राजनीतिक अधिकार गंवाने पड़ेंगे, बावजूद इसके उन्होंने मतांतरण का फैसला किया। बाबासाहेब ने इस पर भी जोर दिया कि यद्यपि यह सत्य है कि सभी धर्म यह सिखाते हैं कि जीवन का उद्देश्य उस धर्म द्वारा परिभाषित सत्य की खोज करना है, लेकिन सत्य क्या है, इसकी परिभाषा सभी धर्मो द्वारा अलग-अलग की जाती है। इसके अतिरिक्त वे सत्य प्राप्त करने के साधनों तथा पद्धति के मामले में भी एकरूप नहीं हैं। यह एक तथ्य है कि बाबासाहेब ने धर्म त्यागने का फैसला सामाजिक, राजनीतिक और दूसरे आंदोलन छेड़ने के बाद ही किया। जब तक वह मतांतरित हुए तब तक वह दलितों के लिए ज्यादातर राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकार प्राप्त कर चुके थे।मान्यवर कांशीराम ने दलितों के पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोगों को प्रेरित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने बाबासाहेब अंबेडकर के अधूरे मिशन को पूरा करने के लिए छह दिसंबर 1978 को बामसेफ की स्थापना की। कांशीराम के नेतृत्व से संबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने सबसे पहले दलितों के शिक्षित वर्ग को संगठित करने का काम किया। वह शायद बाबासाहेब के इन शब्दों से परिचित थे कि दलितों का शिक्षित वर्ग उनके साथ जुड़ नहींसका। जल्द ही कांशीराम को भी इसका अहसास हो गया। कांशीराम ने इस वर्ग को 'समाज का ऋण चुकाओ' नारा देकर संगठित किया। समय बीतने के साथ बामसेफ से छह दिसंबर 1981 को डीएस-4 का जन्म हुआ और फिर 14 अप्रैल 1984 को बसपा का। आज हम देख सकते हैं कि बसपा कहां है। लिहाजा यह कहा जा सकता है कि एक हद तक दलितों के शिक्षित वर्ग ने बाबासाहेब की इस निराशा को दूर करने की कोशिश की है कि उसने उनके साथ दूरी रखी। कांशीराम खुद भी एक शिक्षित व्यक्ति थे और पुणे में एक वैज्ञानिक के रूप में तैनात थे। आज दलित समुदाय के लाखों पढ़े-लिखे लोग दलित आंदोलन में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। यही वह वर्ग है जो बाबासाहेब अंबेडकर की जयंती, पुण्यतिथि तथा उनके मतांतरित होने की वर्षगांठ पर नाना प्रकार के कार्यक्रम, बहस और चर्चा-परिचर्चा का आयोजन करता है। यह एक यथार्थ है कि कांशीराम भारत में बौद्ध धर्म को पुनर्जीवित करने के बाबासाहेब के अधूरे मिशन को आगे बढ़ाना चाहते थे। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने खास मकसद से एक संगठन की स्थापना भी की थी, लेकिन अपनी राजनीतिक बाध्यताओं के कारण उन्हें इसे बीच में छोड़ना पड़ा था।

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