Monday, October 13, 2008

भुखमरी का संकट

भारत में भुखमरी घटी है, यह दावा हमारी सरकारे लंबे अरसे से करती आ रहीं है। इस दावे में दम भी हो सकती है। संभव है कि सचमुच भुखमरी घटी हो, पर घटने के बावजूद हम अभी भी इस स्थिति में नहीं पहुंचे हैं कि देश में अन्न की उपलब्धता की स्थिति को संतोषजनक मान सकें। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि भुखमरी की शिकार दुनिया की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा अकेले भारत में रहता है। इसी रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि पांच साल से कम उम्र के पांच करोड़ से अधिक भारतीय बच्चे कुपोषण के शिकार है। हम चाहे तो आंकड़ों का खेल दिखाकर इस बात से इनकार कर सकते है, पर यह तय है कि इससे यह समस्या हल नहीं होगी। समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि हम उसके मूल की तलाश करे। आमतौर पर जब ऐसी समस्याओं की बात की जाती है तो हमारे राजनेता देश में जनसंख्या के अधिक दबाव का तर्क देकर बच निकलते है, लेकिन यह समस्या से पलायन के अलावा और कुछ भी नहीं है। इसकी एक वजह भारत की बड़ी आबादी है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह अकेली वजह नहीं है। इसके महत्वपूर्ण कारणों में संसाधनों का असंयमित वितरण, क्षेत्रीय असंतुलन और राजनीतिक अस्थिरता भी शामिल है।सच तो यह है कि यह आंकड़ा दुनिया के किसी भी ऐसे शख्स को हैरान करने वाला है जो भारत के चुनावी घोषणापत्रों और सरकारी कार्यक्रमों को जानता हो। आजादी के बाद के इतिहास में ऐसी एक भी सरकार नहीं है जिसकी प्राथमिकताओं में गरीबी और भुखमरी हटाना शामिल न रहा हो बल्कि यही हर सरकार की पहली प्राथमिकता रही है। शिक्षा और रोजगार भी इसके बाद की बातें रहींहै। इसके बावजूद पिछले साठ साल में हम अगर अपने इस एक लक्ष्य में भी पूरी तरह सफल नहीं हो सके है तो इसे क्या माना जाए? क्या इसे हम सिर्फ अपनी बड़ी जरूरत और मामूली संसाधनों का तर्क देकर टाल सकते है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारे राजनेता लगातार इस मसले पर हल्ला करते रहे है। बार-बार और हर तरह से यह प्रचारित किया गया है कि इस दिशा में बहुत कुछ हो रहा है। इसके बावजूद सच यह है और इस सच के मद्देनजर सवाल यह है कि क्या इस संबंध में जितना कहा गया सचमुच उतना किया भी गया है? अगर वास्तव में उतना किया गया और उसे करने में ईमानदारी भी बरती गई तो फिर जमीनी सच इतना वीभत्स क्यों है?

विश्व खाद्य कार्यक्रम की इस रिपोर्ट पर भरोसा करे तो यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारा आज तो संतोषजनक नहीं ही है, अपने कल के प्रति भी हम कुछ खास सतर्क नहीं हैं। अगर होते तो कुपोषण के शिकार बच्चों का आंकड़ा इतना विकराल क्यों होता? इसी रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि देश में 24 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे गुजारा कर रहे है। ऐसा तब है जबकि हमारे देश में गरीबी की रेखा के लिए निर्धारित शर्ते नितांत अव्यवहारिक है। देश में गरीबों की वास्तविक संख्या पर विचार किया जाए तो वह चौंकाने वाली स्थिति होगी। फिर जो गरीबी रेखा के नीचे जी रहे है उनका हाल क्या होगा, समझा जा सकता है। रिपोर्ट तो यह बताती है कि गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की आमदनी का 70 फीसदी हिस्सा भोजन पर ही खर्च हो जाता है। मौजूदा सच्चाई यह है कि इतना खर्च करके भी उन्हे भरपेट और पोषक आहार नहीं मिल पाता है। पिछले चार-पांच वर्षो में महंगाई जिस रफ्तार से बढ़ी है उसने गरीबों को इस लायक नहीं छोड़ा है कि वे जी भी सकें। यहां तक कि मध्यमवर्गीय लोगों के लिए भी अपनी जरूरी जरूरतों को पूरा कर पाना दूभर हो गया है। फिर उस तबके का हाल क्या होगा जिसे घोषित तौर पर गरीब माना ही जाता है?

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