मुम्बई। ओलंपिक इतिहास में बुधवार का दिन ऐतिहासिक रहा। पूरे देश का सिर गर्व से ऊंचा हो गया। भारत के दो सितारों ने वह करके दिखाया जो अब तक नहीं हुआ। 56 साल बाद भारत ने ओलंपिक में कुश्ती का तमगा जीता। वहीं इस बार ओलंपिक में भारत का मुक्का भी चमका। पहलवान सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेंद्र कुमार ने देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिया।
लेकिन क्या है इस पदक के पहले की हकीकत आइये आपको दिखाते हैं। भारतीय ओलंपिक इतिहास के ये तीन ऐतिहासिक लम्हे हैं जिन्होंने बीजिंग ओलंपिक को यादगार बना दिया है।
लेकिन इन पदकों के पीछे लंबी मेहनत और संघर्ष छिपा है। अभिनव जैसा हर कोई नहीं जिसके पिता करोड़पति हों, जिन्होंने पिछले दस सालों से अपने बेटे को हर वह सुविधा मुहैया कराई जिसकी उसे जरूरत थी। फिर चाहे घर में एक एयरकंडीशन शूटिंग रेंज ही क्यों न हो।
लेकिन सुशील कुमार के लिए ओलंपिक का कांस्य जीतने का सफर बेहद मुश्किल था। दिल्ली के छत्रपाल स्टेडियम के जिस कमरे में रहकर सुशील ने कुश्ती सीखी वहां एक कमरे में बीस लोग रहते थे। सुविधाओं के नाम पर उन्हें सिर्फ मिला महज एक ट्यूबलाइट और दो पंखे। खाना भी खुद के पैसों से ही खाना पड़ता है।
कुश्ती का प्रशिक्षण ले रहे पहलवानों के मुताबिक, “यहां पर बहुत परेशानी होती है, यह रहने के लिए सही जगह नहीं है। यहां पर कोई सुविधा नहीं है। पंद्रह-बीस बच्चे एक साथ रहते हैं, नहाने के लिए साबुन नहीं है। कमरे के पंखे भी ठीक से नहीं चलते।”
विजेंद्र कुमार ने भले ही सेमीफाइनल में जगह बना ली है और देश के लिए पदक पक्का कर दिया है। लेकिन इनकी कहानी भी जुदा नहीं।
खेल को लेकर सरकार का निरस रवैया कोई नया नहीं है, खिलाड़ियों को यहां सुविधाओं के नाम पर सिफर मिलता है। लेकिन इन मुश्किलों को इन्होंने कभी अपनी राह में रोड़ा नहीं बनने दिया। शुक्रवार को विजेंद्र रिंग में इस इरादे से उतरेंगे कि फाइनल में जगह बना सके।
वहीं अब भी अगर खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण खिलाड़ियों की ट्रेनिंग और उनकी सुविधाओं के बारे में नहीं चेती तो जरूरी नहीं कि अगले ओलंपिक में फिर कोई अभिनव, सुशील और विजेंद्र देश के लिए पदक लाए।
Saturday, August 23, 2008
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